उत्तराखंड

अब यादों में रह जाएगा डीजल इंजन, लालकुआं में इलेक्ट्रिक इंजन का ट्रायल सफल


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रेल के भाप के इंजन से इलेक्ट्रिक इंजन तक का 138 साल का सफर बहुत दिलचस्प रहा है। अब बुधवार को रामपुर-लालकुआं के बीच इलेक्ट्रिक रेल इंजन का सफल परीक्षण होने के बाद यहां के लोगों के लिए डीजल इंजन भी अब इतिहास बनने जा रहा है। भावी पीढ़ी के लिए भाप व डीजल इंजन की कहानी किसी रोमांच से कम नही होगी।

16 अप्रैल 1853 में भारत में रेलगाड़ी के संचालन के 31 साल बाद यानि 24 अप्रैल 1884 को लालकुआं व काठगोदाम में नैरो गेज में भाप से चलने वाला ट्रामवे इंजन रेलगाड़ी पहुंची। अंग्रेजों ने उत्तराखंड में अथाह बेशकीमती लकड़ी व गौला की रेता-बजरी के व्यापार के मकसद से रूहेलखंड से कुमाऊं के लिए नैरो गेज  रेल लाइन बिछाई थी। उस समय भाप के इंजन से चलने वाली रेलगाड़ी को देखना यहां के लोगों के लिए कौतूहल का विषय था। लोग इसे देखकर भागने लगते थे और इसे अंग्रेजों का खतरनाक कारनामा समझते थे। इसके कुछ वर्षों बाद इस रेल लाइन को मीटर गेज में बदल दिया गया और भाप के इंजन के स्थान पर डीजल इंजन का उपयोग किया जाने लगा। यात्रियों की मांग पर रेलवे प्रशासन ने वर्ष 1920 के आसपास अवध तिरुअर मेल का नाम बदलकर नैनीताल एक्सप्रेस कर दिया और इसे लखनऊ तक चलाया गया। इसके अलावा कुमाऊं एक्सप्रेस और अन्य सवारी गाडिय़ां भी संचालित होने लगी।

6 अक्तूबर 1968 को तत्कालीन वित्त राज्य मंत्री केसी पंत के साथ यहां पहुंचे तत्कालीन रेल मंत्री सीएम पुनाचा ने बड़ी रेल लाइन के प्रस्ताव को स्वीकारा। इसके बाद मई 1994 के प्रथम सप्ताह में काठगोदाम से रामपुर बड़ी रेल सेवा चालू हो सकी। 2011 में बरेली-लालकुआं के बीच भी ब्राड गेज का काम शुरू हो गया। 31 दिसंबर 2010 को मीटर गेज पर आखरी रेलगाड़ी दौड़ी। जिसके बाद यहां से ब्राड गेज लाइन में रेलगाडिय़ां दौडऩे लगी। अब इधर बुधवार को ब्राड गेज में इलेक्ट्रिक इंजन के सफल ट्रायल के बाद डीजल इंजन भी इतिहास बनने जा रहा है। भाप के इंजन से डीजल इंजन तक का सफर पूरा करने के बाद नयी पीढ़ी के लिए इलेक्ट्रिक इंजन अब हमसफर बनने जा रहा है।

उत्तराखंड के मैदानी क्षेत्रों में रेलगाड़ी अन्य शहरों की तर्ज पर सरपट दौड़ रही है लेकिन तमाम घोषणाओं के बावजूद पर्वतीय क्षेत्रों में रेलगाड़ी संचालन अब भी सपना ही बना है। 1905 में अंग्रेजों ने टनकपुर-बागेश्वर रेल लाइन के अलावा चौखुटिया, जौलजीबी रेल लाइन का सर्वे करवाया था। सर्वे का यह कार्य 1939 में पूरा हो गया किंतु द्वितीय विश्व युद्ध के कारण सरकार का ध्यान इससे हट गया।

आजादी के बाद क्षेत्रवासियों ने इस मांग को आंदोलन के जरिये कई बार उठाया। इस पर सरकारों ने कुमाऊं व गढ़वाल मंडल में रेल लाइन सर्वे की कई बार घोषणाएं की। किंतु पहाड़ के विकास में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकने वाली रेल लाइन के निर्माण कि ओर कोई ध्यान नहीं दिया गया और इसे सिर्फ चुनावी घोषणाओं में इस्तेमाल किया जाने लगा।


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